फिर वही दोराहा। इधर जाऊं या उधर। उलझन ही उलझन है। घर के उस पेड़ को देखता हूं जो रोज धीरे-धीरे मर रहा है। उसकी शुष्कता को मैंने स्पर्श किया है। कुछ-कुछ मेरे जैसा एहसास कराती है।
स्वर फीके हैं, फिर भी संगीत बज रहा है। भूल गया था, मन बूढ़ा नहीं होता।
सच में समय इंसानी जीवन को कितना तब्दील कर देता है। बुढ़ापा तब्दीली ही तो है।
उड़ती लहरों को देखकर थोड़ी तसल्ली होती है।
-harminder singh