छली जाती हैं बेटियां






बेटियां अपने घरों में भी सुरक्षित नहीं। उनके शोषण की दास्तां मार्मिक है। वे अपनी कहानी किसी से कह नहीं सकतीं क्योंकि उन्हें लगता है, उनका कोई अपना नहीं, सगा नहीं। सगों द्वारा भी छली गयी हैं बेटियां। शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना आजीवन के लिये चुभन छोड़ देती है जिसकी टीस न जीने देती है, न मरने।

बेटियों की चीखें बंद दीवारों में झटपटाती हुईं रह जाती हैं। रिश्तों के मायने फिर क्या रह गये? अपनों से दुखी हैं बेटियां।

खुली हवा में सांस लेने की सोच का गला घोंट दिया जाता है। आसमान में उड़ने की तमन्ना का ढेर भरभराकर ढह जाता है, ताश के पत्ते बिखर जाते हैं। लड़की की उम्मीदों को फड़फड़ाने के लिये छोड़ दिया जाता है।

जब अपने पराये सा सुलूक करें तो स्थिति अच्छी नहीं रह जाती। लड़कियों को बेमतलब पीटा जाता है। उनसे कई गुना काम कराया जाता है। जरा-जरा सी बात पर दुत्कार मिलती है। यह सब नहीं, बहुत कुछ होता है बेटियों के साथ।

उनके चेहरों पर शंका की लकीरें हैं, डरी-सहमी सी हैं पर खामोशी कुछ कहती है और बहुत कुछ। पढ़ने की उन्हें जरुरत नहीं क्योंकि परिवार वाले कहते हैं-‘पढ़-लिख क्या करेगी? दूसरे घर चौका-बरतन ही तो करना है। घर-बार की बात सीखना चाहिये।’ यह सोच धीरे-धीरे सिमट रही है, बेटियां अभी भी बेटों का दर्जा नहीं पा सकीं।

बेटियों की कहानी रोती-बिलखती है और वे मजबूर हैं। उनके कंधे कमजोर नहीं, मगर समाज की बेडि़यां उन्हें रह रहकर रोकती हैं। बहुतों ने बंधनों से खुद को आजाद किया है, नये आसमान की ओर रुख किया है। वे बदली हैं, उन्होंने ओरों को बदला है। यह उनकी कामयाबी का परचम है।


-harminder singh