दिमाग की सुनो, दिल की नहीं





‘‘हम अपने हृदय को मस्तिष्क पर हावी होने देते हैं। क्या भावनांए इंसान को काबू करने का श्रेष्ठ साधन हैं?’’ मैंने काकी से पूछा।

वह मेरे प्रश्नों का उत्तर देने में हमेशा सहज रहती है। उसकी यह आदत मुझे बहुत अच्छी लगती है।

बूढ़ी काकी बोली,‘‘हृदय की कोमलता इंसान को कोमल बनाती है। कितनी क्रूरता क्यों न समायी हो किसी में, पर हृदय के किसी न किसी कोने में भावनांए बसती हैं जो स्नेह, ममता और दया में भीगी हुई हैं। आवरण प्राय: सच नहीं दिखाता और वास्तविकता बिना खुदाई के भी उजागर हो जाती है।’’

‘‘भावनाएं अक्सर खेल करती हैं। उनका इठलाना असमंजस की स्थिति उत्पन्न करता है। उनकी चंचलता हमें घृणा तथा प्रेम करने को विवश करती है। सोचते रह जाते हैं कि क्यों हम स्वयं को भूल बैठे? क्यों हम खुद से बिना पूछे किसी अनजानी राह में मुड़ गए? तब समय कहां था पूछने का कि हमने दिल की सुनी या दिमाग की।’’

‘‘हृदय पर भावों का कब्जा हुआ। फिर मस्तिष्क को किनारे करना पड़ा। जहां हृदय से सोचना शुरु किया चीजों में बिखराव की स्थिति उत्पन्न हुई और ऐसा होते हुए अधिक वक्त नहीं लगा। यहीं इंसान हार गया।’’

‘‘अक्सर हम हृदय को मस्तिष्क पर विजय पाने का स्वयं ही आमंत्रण देते हैं। इसलिए भावनाओं को हावी मत होने दो क्योंकि वे तो इंसान के साथ बीत जाती हैं। वे कुछ वक्त की अवधि हैं। वे स्थायी हो भी नहीं सकतीं। फिर क्यों जीवन की उधेड़बुन वाली गलियों से गुजरा जाए।’’

इतना कहकर काकी ने थोड़ा विराम लिया।

उसने अपनी बूढ़ी आंखों से मुझे देखा, फिर कहा,‘‘सच है कि इंसान को वश में करने का भावनांए श्रेष्ठ साधन हैं। यह हृदय ही है जहां ये वास करती हैं। कई बार परिस्थितियां हमें मजबूर कर जाती हैं बहने को। उस समय सोच के मायने भी बदल जाते हैं। चुपचाप आत्मसर्पण करने की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। भावों की शक्ति तब देखने लायक होती है।’’

‘‘जानते हो मैंने भावनाओं की कद्र जरुर की, पर कभी उन्हें हावी नहीं होने दिया। लोग चले जाते हैं, हम यहीं रह जाते हैं। दिमाग अंतिम सांस तक हमारे साथ हृदय की तरह है। फर्क इतना है कि धड़कन पहले बंद होती है।’’

-harminder singh