बंधन मुक्ति मांगते हैं



मैंने काकी से पूछा,‘उन्मुक्त होने में घबराहट कैसी?’

अबकी बार काकी गंभीर थी। उसने मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा,‘घबराहट उसकी नहीं, घबराहट इसकी है। यहां का मोह इतना है कि संसार को छोड़ कर जाना प्राणी नहीं चाहता। यह अजीब ही तो है कि हम जहां अस्थायी हैं, उससे बिछड़ जाने से घबराते हैं। यहीं रहने की आदत जो पड़ गई है, फिर क्यों जायें यहां से? संसार हमारा घर कभी था ही नहीं, होगा। मकसद क्या है? यह भी पता नहीं। सिर्फ पैदा होने और मरने आते हैं हम। क्या-क्या और क्यों-क्यों होता है यह सब। इसे ही तो ईश्वर की मर्जी कहते हैं।

मैंने फिर पूछा,‘फिर उन्मुक्त भी होना चाहते हैं, क्यों?’

बूढ़ी काकी मुस्कराई,‘देखो, दोनों चीजें एक साथ होने की चाह में रहती हैं। हम मुक्ति भी चाहते हैं और मरने से भय लगता है। आराम भी चाहिए और श्रम करना नहीं चाहते। यह सोच पर निर्भर करता है कि हमें क्या चाहिए? धरती के सुखों की लालसा हमें यहां से चिपके रहने को विवश करती है, लेकिन हमारी आत्मा अवधि पूर्ण होने पर इस शरीर को छोड़ने की तैयारी में लग जाती है। यह तैयारी प्रायः बुढ़ापे से ही प्रारंभ हो जाती है। मेरे अंदर का जीव कब का प्रसन्न हो रहा है कि नये सफर की शुरुआत जल्द होगी। मेरा मन जोकि हृदय से अधिक घुलमिल कर रहता है आजकल उदास रहने लगा है। उसे डर है कहीं वह यहीं छूट जाए।

भय लगता है मुझे। इसका कोई तोड़ भी तो नहीं। गुजरे वक्त को हम अबतक ढोते आये हैं, पता ही नहीं चला। जमाना आगे बढ़ता रहा, हम देखते रहे और चलते रहे। अब वक्त नहीं कहता कि आगे चलो। कहता है कि बस भी करो, बहुत हुआ, विश्राम करने का समय गया। मनुष्य शरीर सारे बंधनों से मुक्त होगा और आजाद होगी आत्मा अपने नये देश जाने के लिए। यह उजाले को छूने की कोशिश होगी। सब कुछ यहीं रह जायेगा- अपना भी, अपने भी और पराये भी।

-Harminder Singh