सिसकते बचपन का दर्द
आज हमारे देश में बच्चे अपनों के बीच भी असुरक्षित हैं। ऐसे मामले बढ़ रहे हैं जिनमें बचपन उन्हीं हाथों में शोषित है जहां उसकी सुरक्षा की गारंटी हमारा समाज और कानून देता है। हमारे समाज के न जाने कितने हाथ इन बेकसूर और कोमल फूलों को अपने अपराधों को छुपाने के लिए बेरहमी से मसल डालते हैं। उनपर बेरहम दिल उन्हें कमजोर, कमसिन और निश्छल होने के कारण आसानी से अपना शिकार बना लेते हैं।
जिन मासूमों को बलात्कार आदि का शिकार बनाया जाता है। उनमें इन बच्चों के निकटवर्ती रिश्तेदार, पड़ौसी तथा अध्यापक ही प्राय: संलिप्त होते हैं। छोटी-छोटी बच्चियों से दुराचार की घटनायें बढ़ी हैं। इस तरह की घटनाओं में भी प्राय: करीबी रिश्तेदार या पड़ौसी ही संलिप्त पाये गये हैं। बाप, भाई, चाचा, ताऊ, मामा आदि रिश्तों को तार-तार करने वाली घटनायें अखबारों में खूब मिलती हैं।
कहीं बच्चों को आग में फ़ेंक मां आत्महत्या करती है। कहीं बाप अपने इष्ट को खुश करने के लिए तांत्रिक के कहने पर अपनी औलाद की बलि दे देता है। कहीं बे-औलाद महिला तांत्रिक के बकहावे से दूसरे के अबोध बच्चे की हत्या कर देती है। कहीं फिरौती के नाम पर बच्चों का अपहरण कर लिया जाता है जिनमें कई की बेरहमी से हत्या कर दी जाती है। यानि हर जगह बचपन खतरे में है। बड़ों के अपराधों की सजा उसे मिल रही है। इन नन्हें फरिश्तों को सुरक्षित हाथों और प्रेम की दरकार है।
बच्चों को भगवान की मूर्ति कहा ही नहीं गया बल्कि यह शाश्वत सत्य है। फिल्मी गीतों में कहीं उसे ‘नन्हा फरिश्ता’, कहीं-‘ये वो नन्हें फूल हैं जो भगवान को लगते प्यारे।’
हिन्दी की एक कविता की ये पंक्तियां देखिये-
‘बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।’
बच्चों को भगवान यूं ही नहीं कहा गया है। उनका भोलापन, अपना समझकर थोड़े से प्रेम में किसी का भी हो जाना। मीठी-मीठी बातों के प्रेमपाश में बंध जाना।
आंखों में प्रेम का सागर लिए यह नन्हा बचपन भला किसे मोहित नहीं करता। सिसकते बचपन के दर्द की दवा तलाशने का समय है ताकि बचपन अपनों के आंचल में सुरक्षित किलकारियां भरता रहे।
-Harminder Singh
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