शान से हुआ जाता है शहीद
टिमटिमाती लौ के बुझने की बारी आ चुकी। मैं खामोश हूं। देख रहा हूं, नज़र गढ़ाये, कुछ तो नजर आये। सब धुंधला है। इन कमजोर आंखों का क्या करुं?
चुप होना पड़ता है बुढ़ापे में। कुछ कहने का मन नहीं करता अब।
थकी काया को ढोने का जतन इंसान मरते दम तक करता है। मैं हंस नहीं सकता, हां रो जरुर सकता हूं। बेबसी का कोहरा यहां कभी छंटता नहीं, बल्कि और गहराता है।
खामोशी, ......हर जगह खामोशी, जैसे मातम छाया हो। हां, यह वक्त सरल बिल्कुल नहीं है। एक वृद्ध से बेहतर भला इसे कौन जान सकता है। जवानी का क्या, वह तो जैसे-तैसे कट जाती है। असली परीक्षा बुढ़ापे में होती है जब अंग शिथिल हो जाते हैं।
मैं अपनी कमजोर गर्दन को घुमाने में भी समय लगाता हूं। कितना बदल जाता है वक्त पता कहां चलता है। अभी तक सब आसान था। मगर बुढ़ापे ने मेरा संसार पलट दिया। टेड़ी-मेढ़ी लकीरों को छूना नहीं चाहता, लेकिन उनकी जटिलता को और जटिल बनता हुआ देख रहा हूं।
जीवन समझ से परे है और बुढ़ापा भी। लाठी टेककर चलना अब रोजमर्रा का काम है। सहारे की जरुरत पड़ती है बुढ़ापे को, तभी वह सरकता है।
लेकिन मैं हार नहीं मानने वाला, लड़ूंगा हौंसले के साथ।
इंसान थका जरुर है, पर चूका नहीं। बुढ़ापा चुनौती है, वही संघर्ष करना भी सिखाता है। खुद की खुद से लड़ाई है बुढ़ापा।
यह जंग जीती नहीं जाती, लेकिन शान से शहीद जरुर हुआ जाता है।
-Harminder Singh