Munshi Bhola Singh with Sardar Mahender Singh.(vradhgram) |
दो बूढ़ों के मिलन को मैंने नजदीक से देखा और समझा है। उनके पास क्या-क्या होता है कहने को और क्या नहीं। लेकिन कुछ वे कह पाते हैं और कुछ अनकही भी कह जाते हैं अपने भावों से। उनकी बातों में बहुत कुछ बहता है, नीर भी, लेकिन वे ढांढस बंधाये रहते हैं अपना और अपनों का भी।
ये वे थे जो जीवन की खट्टी-मीठी यादों के बीच एक दूसरे से बरसों बाद मिल रहे थे। खुशी थी, चेहरे पर चमक भी, पल-पल खुशगवार रहा होगा उनके लिये। मुस्कान से सलवटों को नया आकार मिल रहा था और वे कभी-कभी किसी बात, तो कभी किसी बात पर बीच-बीच में ठाठे भी मारते थे।
एक के सिर पर पगड़ी थी, केश थे। दूसरे के सिर टोपी थी। बेटी और बेटा इन्हें देखकर गदद थे और उनके बच्चे भी। इस माहौल का हिस्सा मैं भी था।
उनके पास उम्मीदों का एक चिट्ठा था जिसे वे कभी खोलते तो कभी खुद-ब-खुद बंद हो जाता। उठापठक थी, बेचैनी भी और अजब सा साम्य भी। उनमें से एक मुंशी भोला सिंह थे। इनके पिता मुंशी निर्मल सिंह जी अपने जमाने के संत लोगों में से एक थे। उनका व्यवहार अपने छह बेटों में बंट गया। एक बेटी का पति उसे तीन बच्चों की जिम्मेदारी देकर साधु बन गया। आज वे बूढ़ी हो चुकी हैं, लेकिन उनके पुत्र और पुत्रियां धन संपन्न और प्रसन्न हैं।
दूसरे थे रामपुर के छोटे से गांव बंजरिया के रहने वाले। स. प्रताप महेन्द्र सिंह सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी हैं। वे पहले किसान यूनियन के सक्रिय सदस्य भी हुआ करते थे। लेकिन यूनियन की शैली और उसमें कई खराब लोगों के कारण वे उससे दूर हो गये। सज्जन हैं, व्यवहार में भी और अपने दो बेटों और एक बेटी को भी यही सिखाया है। वे आजकल ऊंचा सुनते हैं। बच्चे कहते हैं कि इलाज करा लो। पता नहीं क्यों वे जाते नहीं। बंजरिया से दूर-दूर तक कोई स्कूल नहीं था। इन्होंने स्कूल खोल रखा है। कई बच्चों की फीस नहीं ली जाती क्योंकि वे उन घरों से आते हैं जहां रोटी के लिये बच्चे मांओं से अनुरोध करते हैं, तो उन्हें कुछ सूखे टुकड़ों से बहला दिया जाता है। खुद भूखी ही रह जाती हैं।
गांववालों को खेती नहीं आती थी। महेन्द्र सिंह पहले ज्योतिबाफुले नगर में जिला मुख्यालय अमरोहा से कुछ दूर एक गांव में बसते थे, लेकिन जमीन ज्यादाद बेचकर रामपुर के एक अति पिछड़े गांव में चले गये। गांव वाले आज भी कहते हैं,‘‘ये न आते तो हम खेती कभी न कर पाते।’’
महेन्द्र सिंह और भोला सिंह को पता ही नहीं चलता कब चाय ठंडी हो गयी। वे बातों में मशगूल थे। ये उम्र ही ऐसी होती है जब भावुकता और स्नेह कुलाचें मारता है। मन की बात बाहर निकलती भी उसी तरलता की तरह है और छिपती भी उसी तरह है।
झुर्रियों को देखकर उम्र का अंदाजा लगाया जा सकता है। मुंशी भोला सिंह 85 वर्ष पार कर गये हैं, लेकिन चेहरे पर चमक बरकरार है। महेन्द्र सिंह की कमर उनका साथ नहीं दे रही यद्यपि उनकी और मुंशीजी की उम्र का फासला 5 वर्षों का है। मुंशी जी बड़े हैं महेन्द्र जी से।
तीन बेटे उन्हें स्नेह से रखते हैं या नहीं ये वे किसी से बताते नहीं। उनकी पत्नि का देहांत इसी महीने की शुरुआत में हो गया। उस दिन वे किसी ने पहली बार रोते हुये देखे थे। उनकी आंखें छलक आयी थीं। महेन्द्र जी उनसे पूछते हैं,‘‘बच्चों की दादी की मृत्यु के बाद ही आप पहली बार कहीं आये हैं।’’
वे मुस्करा जाते हैं। अट्ठास करने की अपनी पुरानी आदत को छिपा नहीं पाते। भोला सिंह ने अपनी जवानी में तीतर का शिकार बहुत किया है। ये मेरे हिसाब से क्रूरता है। मैंने उनसे इस विषय में बात की तो वे बोले,‘‘पता नहीं कैसे मैं यह करता रहा। आज मुझे अपने किये पर पछतावा होता है।’’
क्या हम ये कहें कि जवानी के क्रियाकलापों को भोगने के काल को बुढ़ापा कहते हैं?
खैर, दोनों का समय यादों से कट गया। कुछ तेरी याद, कुछ मेरी यादें। इनकी खुशी कैसी थी, और कैसे थे इनके अंर्तमन। समझ नहीं पा रहा कि बुढ़ापे में जर्जरता क्यों आती है? शरीर जबाव क्यों दे जाता है? सब का सब शिथिल पड़ने क्यों लगता है?
बहुत बुरा है या यह अच्छा है अगली दुनिया के लिये। अगला लोक कैसा होगा? क्या वहां भी हम इसी तरह होंगे? ये प्रश्न हैं कि खत्म ही नहीं होते।
बूढ़ों की दुनिया अपनी दुनिया है। उनका जीवन हमारे जीवन से जुदा है, क्योंकि वे अपनी अलग दुनिया के वासी होकर भी हमारे साथ मिलने को उतावले रहते हैं। हमारा साथ उन्हें नहीं मिलता, वे दुखी होते हैं।
बहुत सी बातें गठरी में बांध कर लाये थे दोनों। गठरी खुलती गयी और सिलसिला चलता रहा। बेरोकटोक, लगातार और मजेदार भी।
-Harminder Singh
(यह लेख 2008 में प्रकाशित हो चुका है। मुंशी भोला सिंह की मार्च 2011 को मृत्यु हो चुकी।)