मायने रखते हैं वो पल जब उन्हें
नींद नहीं आती। वे सोने की कोशिश करते हैं। उनकी हड्डियां दर्द करती हैं
और वे उठ बैठते हैं। प्रताप महेन्द्र सिंह की कद काठी अच्छी खासी रही है।
कमर अब सीधी उतनी नहीं होती और हड्डियों पर खाल चिपक गयी है।
वे अखबार में पढ़ी एक छोटी सी कहानी कहते हैं,‘‘एक राजा था। बहुत भला, दानी और पुण्य वाला। राज्य में एक बार अकाल पड़ा। भूख के मारे लोग बेहाल थे। राजा ने अपना सर्वस्व उन्हें दे दिया। अब वह दाने-दाने को मोहताज था। उसका सब कुछ लुट गया। वह दुर्बल हो गया, शरीर पर खाल की परत जमा थी। एक साधु ने उससे पूछा कि आप का यह हाल कैसे हो गया। राजा ने कहा कि मुझसे अपनी प्रजा का दुख देखा नहीं गया। मैंने अपना सब कुछ दान कर दिया।’’
यह कहानी छोटी है, लेकिन इसके पीछे वे अपनी तस्वीर की कल्पना करते हैं। वे राजा तो नहीं हैं, न ही उनकी कोई प्रजा।
बताते हैं,‘‘दुर्बल में भी उसी राजा की तरह हो गया हूं। हड्डियों मेरी दुखती हैं, शरीर में ताकत अब बची नहीं। रात में करवट
लेते हुयी भी परेशानी होती है। उठ बैठता हूं। फिर लेटता हूं। फिर बैठ जाता
हूं। यह ऐसा पड़ाव है जब मर्जी अपनी नहीं रहती। रुठ कर मनाने वाला कोई
नहीं। लाचारी और विवशता के सिवाय कुछ नहीं है बुढ़ापा।’’
प्रताप महेन्द्र जी उम्रदराज हैं, एकांत में बैठते नहीं। यदि कोई उनके पास बैठता है तो बातें होती हैं और बहुत होती हैं।
भोरकाल में उठकर दूर तक घूम आते हैं। धीरे-धीरे यह दूरी कम हो रही है।
इक दिन वे हमसे दूर होंगे।
आज वे मुस्कराते हैं, बच्चों से खूब बातें करते हैं और ठिठोली भी।
किताबों से लगाव उस दिन से पैदा हो गया जब वे मुंशी निर्मल सिंह के संपर्क में आये। इन दिनों कई एतिहासिक किताबें उनकी खाट के पास रखी रहती हैं। चश्मा चढ़ाकर वे उन्हें पढ़ते हैं। हाथों की उंगलियां अधूरी हैं, फिर भी वे पन्ने उलटते हैं।
किसी जहरीली कीटनाशक को इन्होंने अपने दोनों हाथों से घोल दिया था। तब से इनकी उंगलियां आधी हो गयीं।
निर्मल जी को याद करते हैं। कहते हैं,‘‘मैं उनके साथ लाहौर गया था। वे मुझसे बेहद लगाव रखते थे। उनके भाषण आज भी जेहन में ताजा हैं। वे बोलते थे, सब सुनते थे, बिल्कुल ध्यान से। कई बेचैनों की बेचैनियों को उन्होंने दूर किया। वे सच्चे आदमी थे।’’
प्रताप महेन्द्र खुद ग्रामसेवक रहे। इनके बारे में कुछ बाते पहले भी लिखी जा चुकी हैं, देखें-
‘‘दो बूढ़ों का मिलन’’।
इनके दो पुत्र एक पुत्री हैं। पुत्र सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं।
टिकैत की किसान यूनियन की जब लहर चली थी, तो ये उसके सक्रिय सदस्य थे। सैंकड़ों लोग इनके घर एक साथ पधारते थे। सबका खाना-पीना महेंन्द्र सिंह के यहां होता था। खूब रौनक रहती थी। हरी टोपी वाले गांव में लगभग रोज नजर आते थे।
आज भी कई लोगों का भोजन इनके यहां बनता है। लोग उतने नहीं हैं, लेकिन कुछ साथी हैं पुराने जो इकट्ठे पिलखन(बरगद की तरह एक वृक्ष) की घनी छांव में बैठ जाते हैं। भोजन किये बगैर किसी को जाने नहीं देते।
वे गंभीरता से कहते हैं,‘‘बस बीत गया, जिसे बीतना था। पूरा हो गया, जिसे पूरा होना था। मैं भी वहीं चला जाउंगा, जहां सब जाते हैं। वह कोई नयी जगह थोड़े ही होगी।’’
उनकी बात सही है। वह जगह नयी नहीं है। वह जाना सच्चाई है।
एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-
‘‘इक दिन बिक जायेगा,
माटी के मोल,
जग में रह जायेंगे,
प्यारे तेरे बोल।’’
-Harminder Singh
वे अखबार में पढ़ी एक छोटी सी कहानी कहते हैं,‘‘एक राजा था। बहुत भला, दानी और पुण्य वाला। राज्य में एक बार अकाल पड़ा। भूख के मारे लोग बेहाल थे। राजा ने अपना सर्वस्व उन्हें दे दिया। अब वह दाने-दाने को मोहताज था। उसका सब कुछ लुट गया। वह दुर्बल हो गया, शरीर पर खाल की परत जमा थी। एक साधु ने उससे पूछा कि आप का यह हाल कैसे हो गया। राजा ने कहा कि मुझसे अपनी प्रजा का दुख देखा नहीं गया। मैंने अपना सब कुछ दान कर दिया।’’
यह कहानी छोटी है, लेकिन इसके पीछे वे अपनी तस्वीर की कल्पना करते हैं। वे राजा तो नहीं हैं, न ही उनकी कोई प्रजा।
Shri Mahender Singh |
प्रताप महेन्द्र जी उम्रदराज हैं, एकांत में बैठते नहीं। यदि कोई उनके पास बैठता है तो बातें होती हैं और बहुत होती हैं।
भोरकाल में उठकर दूर तक घूम आते हैं। धीरे-धीरे यह दूरी कम हो रही है।
इक दिन वे हमसे दूर होंगे।
आज वे मुस्कराते हैं, बच्चों से खूब बातें करते हैं और ठिठोली भी।
किताबों से लगाव उस दिन से पैदा हो गया जब वे मुंशी निर्मल सिंह के संपर्क में आये। इन दिनों कई एतिहासिक किताबें उनकी खाट के पास रखी रहती हैं। चश्मा चढ़ाकर वे उन्हें पढ़ते हैं। हाथों की उंगलियां अधूरी हैं, फिर भी वे पन्ने उलटते हैं।
किसी जहरीली कीटनाशक को इन्होंने अपने दोनों हाथों से घोल दिया था। तब से इनकी उंगलियां आधी हो गयीं।
निर्मल जी को याद करते हैं। कहते हैं,‘‘मैं उनके साथ लाहौर गया था। वे मुझसे बेहद लगाव रखते थे। उनके भाषण आज भी जेहन में ताजा हैं। वे बोलते थे, सब सुनते थे, बिल्कुल ध्यान से। कई बेचैनों की बेचैनियों को उन्होंने दूर किया। वे सच्चे आदमी थे।’’
प्रताप महेन्द्र खुद ग्रामसेवक रहे। इनके बारे में कुछ बाते पहले भी लिखी जा चुकी हैं, देखें-
‘‘दो बूढ़ों का मिलन’’।
इनके दो पुत्र एक पुत्री हैं। पुत्र सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं।
टिकैत की किसान यूनियन की जब लहर चली थी, तो ये उसके सक्रिय सदस्य थे। सैंकड़ों लोग इनके घर एक साथ पधारते थे। सबका खाना-पीना महेंन्द्र सिंह के यहां होता था। खूब रौनक रहती थी। हरी टोपी वाले गांव में लगभग रोज नजर आते थे।
आज भी कई लोगों का भोजन इनके यहां बनता है। लोग उतने नहीं हैं, लेकिन कुछ साथी हैं पुराने जो इकट्ठे पिलखन(बरगद की तरह एक वृक्ष) की घनी छांव में बैठ जाते हैं। भोजन किये बगैर किसी को जाने नहीं देते।
वे गंभीरता से कहते हैं,‘‘बस बीत गया, जिसे बीतना था। पूरा हो गया, जिसे पूरा होना था। मैं भी वहीं चला जाउंगा, जहां सब जाते हैं। वह कोई नयी जगह थोड़े ही होगी।’’
उनकी बात सही है। वह जगह नयी नहीं है। वह जाना सच्चाई है।
एक पुरानी फिल्म के गीत के शब्द वे कहते हैं-
‘‘इक दिन बिक जायेगा,
माटी के मोल,
जग में रह जायेंगे,
प्यारे तेरे बोल।’’
-Harminder Singh