गीली जिंदगी, सूखा जीवन
‘मृत्यु के बाद इंसान को कौन पूछता है? कोई नहीं। वह इस लोक से परलोक में विलीन हो जाता है। सदा के लिए दिन छिप जाता है। वह खुद भी खुद से छिन जाता है। जिस शरीर के साथ आत्मा का साथ इतना मजबूत बताया जाता है, समयावधि पूरी होने पर वह भी उसे छोड़कर पराया मानकर चली जाती है। ऐसा कहने में कोई बुराई नहीं कि जैसे आत्मा शरीर को जानती ही न हो। मगर अंतिम पल तक वह उसकी सबसे प्रिय संगी है।’ बूढ़ी काकी की आध्यात्म में रुचि बचपन से ही रही है।
काकी ने एक बार बताया कि वह पड़ोस में भजन-कीर्तन में जरुर जाती। ऐसा उसकी आदत बन गयी थी। उसने इस कारण अपने माता-पिता की डांट को झेला, लेकिन वह अपनी आदत से बाज नहीं आयी। काकी ने एक पुस्तक बची कापियों के कोरे पन्नों से खुद सूई-धागे से सिल कर तैयार की थी। इस कारण उसकी उंगली में सूई चुभ गयी। वह कई दिन उसपर पट्टी बांधे रही। उस पुस्तक में उसने कई धर्मों के महापुरुषों के चित्र लगाये। आज भी वह किताब काकी की अलमारी में बाकी किताबों संग सुकून से रखी है।
‘मैं किसी धर्म को बुरा नहीं मानती। जिस धर्म में मुझे जो अच्छा लगता है, वह पढ़ती हूं। इसलिए मेरे पास कितनी किताबें हैं, ग्रंथ हैं। बाहरी तौर पर किसी में खोट निकालना गलत है। मैं खोट निकालने की इच्छुक नहीं, पर अच्छी चीजें ग्रहण करने में क्या बुराई है?’ काकी ने एक पुरानी पुस्तक के पन्नों को पलटना शुरु किया।
‘देखो इसमें कितने धर्म बसे हैं। परमात्मा और आत्मा के विषय में मैंने धर्मों का अध्ययन कर जाना। मेरे विचार में जीवन भर हम कितनी चीजों को पाने में वक्त बरबाद करते हैं। जबकि बाद में हाथ खाली ही रह जाता है। कोई आजतक साथ कुछ लेकर नहीं गया, यहां तक की खुद का शरीर भी। फिर होड़ क्यों मची है? इतना उतावलापन, जल्दबाजी, मारामारी क्यों?’ काकी के शब्दों में कठोरता के दर्शन हो रहे थे। शायद आवेश में इंसान ऐसा हो जाता है, लेकिन यहां काकी अपनी चिंता व्यक्त कर रही थी।
मैंने काकी से कहा,‘इंसान की जिंदगी आशा से जुड़ी है। इसी पर जीवन टिका है।’
इसपर काकी बोली,‘हां जीने की आस हमसे बहुत कुछ करवाती है। हम किसी न किसी आस में जीते हैं। जब आशा ही खत्म हो जाए तो उसे क्या कहा जाए। शायद कुछ नहीं, क्योंकि जीवन बिल्कुल नीरस है तब, निर्जन वन के पेड़ों-सा। सूखी रेत के कण मामूली झोंके से अस्तव्यस्त हो जाते हैं, क्योंकि उनमें नमीं का एक कतरा भी बाकी नहीं रह गया।’
थोड़ा सोचने के बाद मैंने कहा,‘फिर निराश व्यक्ति का जीवन ही क्या बचा? वह जीवन पूरा होने से पहले ही हार गया। रेत के कण हवा में उड़ गए।’
मुझे नदी की याद आ गयी जो पानी न होने के कारण सूखी है। अब वहां पानी नहीं बहता। लोग कहते हैं -‘अब बाढ़ का कोई खतरा नहीं।’
‘तो इंसान गीली जिंदगी में सूखा जीवन बिताते हैं।’ मैंने काकी की तरफ देखा।
बूढ़ी काकी ने पुस्तक को बंद कर मेज पर रख दिया। वह बोली,‘बात सूखे या गीलेपन की नहीं है। हम जब खुद से दूर चले जाते हैं, समस्या तब उत्पन्न होती है। खुद को भगवान मानना सबसे बड़ी समस्या है। भ्रम में जीना भी कोई जीना हुआ। सच शायद कड़वा लगे। झूठ का आगमन शानदार होता है और जानदार भी। लेकिन उसके पैर कब लड़खड़ा जाएं किसी को मालूम नहीं, स्वयं झूठ को भी नहीं। मरना सबको है, फिर ढोंग क्यों? मैं तैयार हूं अंतिम यात्रा कि लिए। मुझे भय नहीं क्योंकि मैं भ्रम में नहीं जी रही। क्योंकि मैं जीवन की सच्चाई को जानती हूं। क्योंकि मैंने जाना है कि आत्मा का साथ कभी भी शरीर से छूट सकता है।’
‘क्योंकि इंसान बुढ़ापे में थका जरुर है, पर जस्बा है खुशी-खुशी विदाई लेने का। शायद आंसू बहाने वाले हजार होंगे।’
-Harminder Singh