शब्द कभी चहकते थे। आज इस मुंडेर, कल उस मुंडेर। गजब की तरावट थी। कमाल का अंदाज था। लहरों के सिरहाने बैठकर धूप सेंकने का अलग ही स्वाद था। रेत की परतें उठकर हंसती थीं। बाहें फैलाकर कणों की बरसात करती नहीं थकती थीं। शब्द कहां थकते। बहते जाते, बस बहते जाते।
उड़ान की लालसा आसमान के नीलेपन तक नहीं सिमटी थी। तमन्ना का गोता ऊर्जा की जाग्रति था। पंख गूंगे ही सही, मगर उनकी फड़फड़ाहट उत्साहित करने वाली एक अदृश्य कविता बन जाती।
आज जिंदगी के टुकड़े बिखर चुके। सूई-धागा था भी, लेकिन उन्हें केवल निहारा जा सकता है। चमड़ी चिपकी हुई खुद ही तमाशबीनों की तरह है। शब्द मोल चुका कर वापस उसी पुरानी खोली में लौटे हैं। एक खांसते हुए योद्धा की तरह रण में जीत का जश्न मनाकर इसी टीस के साथ कि अब पराजय पक्की है। निहत्थे की तरह समर्पण का समय आ गया। लो, समर्पण कर भी दिया।
लाचारी और बेबसी से क्या परदा? थकावट ने ईमानदारी दिखाई है। झुर्रियों की गहराई बूढ़े शब्दों को पहचान दे रही है कि वे अब इसी लायक हैं, मटमैले और जर्जर।
स्याह हो चुके उजाले में कोई तलाश बाकी नहीं रही। इस धुंधलेपन में भला किसी को कैसे खोजा जा सकता है। हां, भुगता जा सकता है जीवन का सच, बिना सिसके, कभी सिसकते हुए, सिर्फ सूखे आंसुओं की मौजूदगी में।
-Harminder Singh
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