पागलखाना (हास्य कविता)
मैं पहुंचा आगरा,
पिकनिक मनाने,
समय हुआ कितना,
ईश्वर ही जाने,
ओह! घड़ी तो रख,
आया मेज पर,
अचानक हाथ गया
अपनी जेब पर,
बटुआ गायब था,
जेब कट गयी,
शुक्र है ऊपर की बच गयी,
मैं बढ़ा चौराहे पर,
थोड़ा गुनगुनाया,
तभी सामने से सनसनाता,
एक आटो आया,
मैंने हाथ दिया,
और रुकवाया,
बैठा अंदर, और
पता बताया,
कुछ दूर चला,
गया वह रुक,
चाकू दिखा तरफ मेरी,
गया वह झुक,
बोला-‘ऐ माल निकाल,
नहीं तो चाकू संभाल।
मैंने रखा साहस,
कतई डरा नहीं,
जबतक उसने मुख पर,
घूसा धरा नहीं,
मैंने जेब की तरफ
किया इशारा,
गुस्से में उसने
एक और मारा,
बोला-‘बस इतना
तेरे पास है पैसा,
समझ रखा है,
मुझको ऐसा-वैसा।’
फिर क्या था,
हुए जमकर प्रहार,
कपड़े फटे, हादसा ऐसा
घटा पहली बार,
मुंह सूजा मेरा,
चीत्कार हुआ घनघोर,
दिखा दिया आज उसने,
मुझपर सारा जोर।
जब उठा,
होश आया,
स्वयं को अस्पताल
में पाया, तभी
एक व्यक्ति मेरे
समीप आया, कहा-
‘दो चंदा’, स्वयं को नेता बताया,
फिर एक महाशय आये,
कटोरा लिए हाथ में,
लगे झगड़ने मुझसे,
दोनों साथ में,
मैंने कहा-‘पागल हैं क्या आप भाई?’
दोनों ने एक-दूजे की कसम खाई,
‘यहां नहीं कोई पागल
महोदय महान,
आप किसी से भी
पूछ लीजिए श्रीमान,
सब यहां यही बतायेंगे,
‘मैं पागल नहीं हूं’,
कह चिल्लायेंगे,
मेरे ख्याल से सर
आप पागल लगते हैं,
तभी ऐसे ऊटपटांग
प्रश्न करते हैं,
प्रश्न ऐसे ही हमारा
डाक्टर कर रहा है,
पता नहीं क्यों हमारा
इलाज चल रहा है।’
मेरे उड़ गये होश,
है कैसा यह दवाखाना,
बाद में हुआ ज्ञात,
था वो पागलखाना।
-Harminder Singh