पतलून ढीली हो गयी। छड़ी की जरुरत महसूस हो रही है। लगता है बुढ़ापा आ गया। शर्मा जी काहे डरते हो, वर्मा जी को देख लो। और चौपाटी वाले गुप्ता जी को क्यों भूल गए। सभी साथ ही थे न। तीन की तिकड़ी कई साल से सुबह की सैर को जाती थी। पिछले कुछ दिनों से शर्मा जी नियम नहीं बना पा रहे। बता रहे थे, कमर में दर्द है। जोड़ भी कहां सही-सलामत हैं। कुल मिलाकर तबीयत खराब है।
बालों की सफेदी को अरसा बीत गया। हंसते हैं तो आंखें बाहर गिरने को हो जाती हैं। भय रहता है कहीं ‘दीदे’ लुढ़क न जाएं। पत्नि एक बच्चे को जन चल बसी। काम से फुर्सत नहीं मिली, सो वैवाहिक-बंधन में दूसरी बार बंधना भूल ही गए। रिश्तेदारों ने टोका-टाकी की, सजेशन दिए। सब बेकार। आज इसलिए अकेले हैं शर्मा जी और हमउम्र साथियों से कहीं अधिक बूढ़े।
शर्मा जी की तरह कितने ही वृद्ध एकाकी जीवन जीने को मजबूर हैं। उनकी औलाद सिर्फ नाम को है। वक्त एक शानदार बहाना है उनके पास। वैसे अगर उनकी भी औलाद उन्हें वृद्धावस्था में अकेला छोड़ दे तो उन्हें किसी तरह की कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। आखिर बड़ों से ही बच्चे सीखते हैं।
दुख होता है जब बुढ़ापा कराहता है। अपनों की करीबी की चाह वृद्धों की सूखी आंखों को नम कर जाती है। चाह केवल चाह रह जाती है।
एकाकी जीवन में दम तोड़ती जिंदगी अच्छी नहीं लगती। यह भी कोई मरना हुआ। आस लिए दिल में यूं ही सिसकते हुए जाना थोड़े ही जाना हुआ। शरीर तो छूट गया मगर उस अदृश्य मोह का क्या जो यहीं कहीं बेगानों की मानिंद भटकता होगा।
-Harminder Singh