‘आंखों की नमीं छिनने के लिए ही उतरी है। धुंधला जीवन है, संसार है और अब सब कुछ। निहारना क्या बाकी रहा?’
बूढ़ी काकी खुद से पूछ बैठी।
स्वयं ही उत्तर देती है,‘किस करवट कितनी स्याह रातें। कितना उजाला हमारे करीब है। मैं ऐसी ही रहूंगी यह मैं कह रही हूं मगर उतने ही समय जबतक मैंने भविष्य की ओर मुंह नहीं किया। चुपचाप कंबल में लिपट गयी और आंखें बंद कीं। नमीं गायब थी; क्योंकि मैं बूढ़ी हूं। क्या देखूं, स्पष्टता खो रही है और धुंध छा रही है।’
samay patrika e magazine
काकी की जर्जर काया उसके अजीब तरह के उतावलेपन को अलग तरह से बयान कर रही है। उसका जीवन पूर्ण होने की कगार पर है। अंतहीन जीवन की कल्पना की गयी थी एक नियमित अवधि के साथ।
मैंने काकी से पूछा,‘कल्पना की गयी मगर अवधि निश्चित है जीवन की।’
इसपर काकी बोली,‘खामोशी और खामोशी मुझमें समा रही है। बिना कहे कुछ कहने का मन नहीं। जीवन की कल्पना उत्साहित करने वाली है। रोम-रोम हर्ष को दर्शाता है। जीवन की लाचारी का प्रश्न प्रारंभ में था ही नहीं। बाद में समय बीतना जरुरी था। वक्त गुजरता गया और इंसान जीवन को जीकर उसके विषय में जानता गया। रिश्ते-नाते और अलग रंगों में समाया जीवन हमें अद्भुत अहसास कराता रहा। हम रस में घुलते रहे। रस में भीगकर स्वरुप बदलता गया। धीरे-धीरे इंसान समझ गया कि जीवन निश्चित है और लौ के बुझने की बारी एक दिन आनी ही है। मगर बुढ़ापे में आकर ही यह अहसास होता है कि जीवन रुकता भी है, ठहराव आता है।’
‘काया में तरावट रहती नहीं। क्षण भारी लगने लगते हैं। तब बुढ़ापा अपनी छटा बिखेर रहा होता है एक अट्टाहस के साथ कि ‘समय मेरा आ गया, अब तू बता।’ फिर क्या बताना, क्या समझाना, सब कुछ ठहरा हुआ मालूम पड़ता है। जीवन रुखा है, गीत सूखा है। सुर लगते ही नहीं। राग बे-राग हो जाता है।’
मैं असमंजस में था एक बार फिर। ऐसा होता है जीवन भाता है और जीवन भी जाता है। बुढ़ापे में नया ज्ञान कराता है और इसी भरोसे के साथ कि प्राणी का समय लगभग पूरा और उसका शुरु।
अद्भुत है ;
‘जीवन ठहर कर भी ठहरा नहीं,
उतावलापन समय के साथ खत्म,
सुनता-समझता है सब वह,
क्योंकि बुढ़ापा नासमझ-बहरा नहीं।’
-Harminder Singh
बूढ़ी काकी खुद से पूछ बैठी।
स्वयं ही उत्तर देती है,‘किस करवट कितनी स्याह रातें। कितना उजाला हमारे करीब है। मैं ऐसी ही रहूंगी यह मैं कह रही हूं मगर उतने ही समय जबतक मैंने भविष्य की ओर मुंह नहीं किया। चुपचाप कंबल में लिपट गयी और आंखें बंद कीं। नमीं गायब थी; क्योंकि मैं बूढ़ी हूं। क्या देखूं, स्पष्टता खो रही है और धुंध छा रही है।’
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काकी की जर्जर काया उसके अजीब तरह के उतावलेपन को अलग तरह से बयान कर रही है। उसका जीवन पूर्ण होने की कगार पर है। अंतहीन जीवन की कल्पना की गयी थी एक नियमित अवधि के साथ।
मैंने काकी से पूछा,‘कल्पना की गयी मगर अवधि निश्चित है जीवन की।’
इसपर काकी बोली,‘खामोशी और खामोशी मुझमें समा रही है। बिना कहे कुछ कहने का मन नहीं। जीवन की कल्पना उत्साहित करने वाली है। रोम-रोम हर्ष को दर्शाता है। जीवन की लाचारी का प्रश्न प्रारंभ में था ही नहीं। बाद में समय बीतना जरुरी था। वक्त गुजरता गया और इंसान जीवन को जीकर उसके विषय में जानता गया। रिश्ते-नाते और अलग रंगों में समाया जीवन हमें अद्भुत अहसास कराता रहा। हम रस में घुलते रहे। रस में भीगकर स्वरुप बदलता गया। धीरे-धीरे इंसान समझ गया कि जीवन निश्चित है और लौ के बुझने की बारी एक दिन आनी ही है। मगर बुढ़ापे में आकर ही यह अहसास होता है कि जीवन रुकता भी है, ठहराव आता है।’
‘काया में तरावट रहती नहीं। क्षण भारी लगने लगते हैं। तब बुढ़ापा अपनी छटा बिखेर रहा होता है एक अट्टाहस के साथ कि ‘समय मेरा आ गया, अब तू बता।’ फिर क्या बताना, क्या समझाना, सब कुछ ठहरा हुआ मालूम पड़ता है। जीवन रुखा है, गीत सूखा है। सुर लगते ही नहीं। राग बे-राग हो जाता है।’
मैं असमंजस में था एक बार फिर। ऐसा होता है जीवन भाता है और जीवन भी जाता है। बुढ़ापे में नया ज्ञान कराता है और इसी भरोसे के साथ कि प्राणी का समय लगभग पूरा और उसका शुरु।
अद्भुत है ;
‘जीवन ठहर कर भी ठहरा नहीं,
उतावलापन समय के साथ खत्म,
सुनता-समझता है सब वह,
क्योंकि बुढ़ापा नासमझ-बहरा नहीं।’
-Harminder Singh