सुनने में शीर्षक अजीब सा लगेगा पर चर्चा के लिये मुझे उपयुक्त लगा. आप कहेंगें बुढ़ापे में सब सिरदर्द पाँव दर्द, घुटने दर्द, आँख गयी, दाँत गये, ब्लड प्रेशर, डायबिटीस, ह्रदय रोग, किडनी फेल सब हाय हाय और आह आह ही तो है पर मैं कहता हूँ सब आपके नज़रिये पर है. मैंन बहुत सारे बूढ़ेनुमा जवान देखे हैं जो बूढ़े होते हुए भी अपने को जवान सरीखा ’मेन्टेन’ करते हैं. लुक तथा फिटनेस पर ध्यान देते हैं. समाज और परिवार में जोर शोर से सक्रिय रहते हैं और एक विशेष दर्जा प्राप्त करते हैं.
दूसरी तरफ जवाननुमा बूढ़े हैं जो 35 -40 की उमर में मोटा चश्मा लगाये लैपटॉप पीठ पर लादे भागते दौड़ते नज़र आते हैं. उन्हें न लुक का होश है, न ही फिटनेस का, बस आफिस और घर या लैपटॉप का स्क्रीन. समाज परिवार से कटी ये दूसरी प्रजाति है.
बुढ़ापा तो खैर अवश्यम्भावी है. बढ़ती उम्र के साथ आयेगा ही. उससे कोई भी बच नहीं सकता पर यह आपका दृष्टिकोण ही है जो लोगोँ में फर्क पैदा करता है.
आँख ख़राब लेन्स बदलाया. दाँत गये तो नयी बत्तीसी लगाई. बाल सफ़ेद तो डाई कराया. घुटने ख़राब उन्हें बदलवाया. आज दिल, गुर्दे, लिवर सब बदल कर लोग नया जीवन उत्साह और जोश से जीते हैं वहीँ दूसरी ओर भरी जवानी में कर्म के बजाय धर्म और अकर्म से लोग अपनी जवानी असमय बुढ़ापे के नाम कर रहे हैं. शराब, सिगरेट, ड्रग्स इस काम में उन्हें बेहतर योगदान कर रहे हैं. इनके लिये नियम कायदे, संयम, शांति, पूजापाठ सब बकवास है.
कई लोग रिटायर होते ही मान लेते हैं कि जीवन ख़त्म. वे या तो परलोक बनाने में लग जाते हैं या पेन्शन पर मज़ा उड़ाने में. दोनों ही कर्म को भूल जाते हैं और तमाम रोगों से ग्रसित हो दुःख उठाते हैं. अगर हमें अपने रोल मॉडेल चाहिये तो जरा राजनेताओँ को देखिये. 80 -90 साल की उम्र में भी चुस्त दुरुस्त भागते दौड़ते, आवश्यक ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाते नहीं थकते. कहते हैं 99 साल उम्र में भी स्वर्गीय मोरारजी प्रधानमन्त्री पद का भार उठाने को उत्सुक थे. आज भी बहुत सारे हमारे नेता बड़ी उम्र के बावजूद सक्रिय हैं.
अतः ज़रूरत इस बात कि सही नजरिया अपनायें. उम्र की गिनती छोड़ राष्ट्र निर्माण में अपना सक्रिय योगदान लगाएं और आह बुढ़ापा को वाह बुढापा बनायें.
अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव
(akhileshchandra.srivastava@gmail.com)
(ये लेखक के अपने विचार हैं)