बूढ़े काका बाजार में सब्जी खरीद रहे थे। मोलभाव करने के कारण उन्हें काफी समय लग गया। इतने में मौसम बिगड़ गया। बारिश तेज होने लगी। तभी उनकी मुलाकात मुझसे हो गयी। बोले,‘पानी लगता है तेज गिरेगा।’
मैंने कहा,‘मौसम विभाग भी यही कह रहा है।’
हम दौड़कर एक मकान के छज्जे के नीचे खड़े हो गये। उनका थैला मैंने कोने में टिका दिया। बारिश से सड़कें तर हो चुकी थीं। पानी बहकर करीब के नाले को डूबाने पर तुला था। इसी तरह बरसात हुई तो दो-तीन का मिनट में नाले का अस्तित्व मिट जायेगा। हुआ भी ऐसा ही, पानी की अधिकता के कारण सब सपाट था। इक्का-दुक्का कारें पानी को चीरती हुईं गुजर रही थीं। बिजली की गड़गड़ाहट बरसाती मौसम को और बरसाती बना रही थी। खुशी इस बात की थी कि गरमी गायब थी और ठंडी हवा के झोंके बूंदों की मस्त चाल के साथ सुखद एहसास करा रहे थे।
काका ने कहा,‘इसे कहते हैं बरसात। थोड़ी देर हो, मोटी बूंदों के साथ और खिलखिलाहट भरा मौसम।’
मैंने सोचा कि निरंतर बूंदों की बेचैनी प्रकृति की छटा को खूबसूरती में ढाल देती है। जबकि उसकी अधिकता इससे उलट कर सकती है। यह जीवन का अनोखापन है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। संघर्ष की दास्तान कठिनाई को जन्म देती है, लेकिन उससे मिलने वाले फल की मिठास बयान नहीं की जा सकती। डूबती हैं नदियां, जीव, और पनपती हैं नदियां, पलते हैं जीव। यह विरोधाभास है। जीवन का विरोधाभास। मामूली नहीं, फिर भी लगता है मामूली, लेकिन विजयगाथायें अक्सर सुनने में अच्छी लगती हैं। जीवन को समेटने की कोशिश में न जाने कितने युग समाप्त हुए, आगे भी होंगे, लेकिन उसे पनपने में युग बीतते हैं, क्योंकि पानी जो जीवन देता है, वह उसे हरने की गुंजाइश भी रखता है। चुकाते हैं हम कीमत हर उस पल की जो मिठास लिए होता है, या शायद उसका स्वाद उसी मिठास के कारण उत्पन्न हुआ हो।
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काका ने इशारा कर एक चिडि़या को दिखाया जो बुरी तरह भीगी हुई थी। उसके पंख गीले थे। उड़ने की क्षमता को वह कुछ समय के लिए खो चुकी थी। फड़फड़ाहट करती, कभी चीं-चीं कर दौड़ती, मगर सफलता नहीं मिलती। मैं उसके करीब जाने को हुआ तो वह फुदककर दीवार के कोने की ओर भागी।
काका ने कहा,‘जिंदगी हौंसले के साथ हैं। चिडि़या जानती है पंख थोड़े समय बाद स्वयं सूख जायेंगे, बरसात रुक जायेगी और वह उड़ जायेगी अपने बसेरे। जिंदगी निराश नहीं है क्योंकि वह आस में है। जिंदगी जस्बे के साथ है क्योंकि वह जीना चाहती है। उसे अपनों की फिक्र है। उसका अपना नीड़ है। जीवन में बदलाव आने चाहिएं हर कोई चाहता है, लेकिन समय के साथ तब्दीली होना श्रेष्ठ है।’
बूंदों का गिरना कम हुआ। चिडि़या के पंख लगभग सूख चुके थे। वह उड़कर एक सीखचे में बैठ गयी। स्वयं को फड़फड़ाया और फुदक कर फिर फर्श पर आ गयी। चीं-चीं करती वह हमारे आसपास मंडराने लगी। काका उसे देखकर मुस्कराहट से भरे थे। ऐसा लग रहा था जैसे वह हमारे साथ खेलना चाह रही हो। मैं उसका पीछा करने की कोशिश करता। वह चीं-चीं कर कुछ दूर उड़ती। हम उसके लिए अनजान नहीं थे यह जान चुकी थी वह।
बरसात रुक चुकी थी। हम रास्ते में थे कि तभी एक चिडि़या हमारे करीब से गुजरी। मैंने उसे पहचान लिया, यह वही थी।
हरमिन्दर सिंह चाहल
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