मन खाली है। बिना विचारों के हमारा सफर जारी है। चल रहे हैं बस, यूं ही चुपचाप। कहने को कुछ है नहीं। गुमसुम लगता है सब। यह वक्त ठहरा हुआ है। रूका हुआ लगता है अब।
चेहरों पर रौनकें थीं कभी आज गायब हो चुकी हरियाली। सूखी डालियां अक्सर पूछती हैं -‘क्यों मायूसी के बादलों के साये में जी रहे हो?’ कोहरे को छंटने की कल्पनायें हुईं। वहां भी धूल फांक कर आने के सिवा कोई चारा न बाकि था। पराजय और हताशा के बोझ को लेकर जीवन की डोर को बांधता रहा। टूट गये बंधन, कट गये छोर, बिखर गयीं राहें। अंदरुंणी सूजन को मरहम की तलाश थी। दिल भर आया, लेकिन दर्द का रिसना तय था।
कितने पल साथ जिये, कितने दिन बदले और लोग भी। लेकिन हम खामोश रहे, हर पल क्योंकि वक्त बेपरवाह था। उलझ रही थीं वे कालीनें जिनके रेशे कसकर बंधे थे। मुरझा रही थीं वे बेलों जो बिना पानी हरे पत्तों से सजी थीं। झोंका आया, सह गया। बर्दाश्त करते-करते आदत बन गयी, लेकिन कबतक। जश्न मरघटों में नहीं होते, वहां मुर्दे नाचा करते हैं।
जिंदगी का ताबीज पहनकर चल निकला कोई ताकि पहली राह चुन सके। हताश मन बाबरा हुआ। फिर पूछे -‘क्यों बोल मीठे पाये जो ओरों को जीना सिखाये और खुद की नैया पार न पाये।’
छाल जो पुरानी हो चली। सूखी, जर्जर। भद्देपन को समेटकर उसने अपनी रुह को दफन कर दिया। खो गया वह सब जो नहीं खोना चाहिए था।
क्यों?
.......क्योंकि मन बेचैन है। क्योंकि मन खुद को सिमटने को कह रहा है। क्योंकि मन ऊब गया लगता है।
हरमिन्दर सिंह