क्या पाया जंग से?


किसी भी फसाद के नतीजे खतरनाक होते हैं। इंसान ही इंसान का खून बहाने में अहम भूमिका में होते हैं। रोते-बिलखते भी इंसान हैं। बच्चे जब दर-दर की ठोकरे खाने को मजबूर होते हैं तो दिल को धक्का सा लगता है। मां जब आंसू बहाती है तो मन भर आता है। बेबा क्या, अनाथ क्या, बेघर क्या, अपाहिज क्या सूरत बिगड़ी हुई होती है। मंजर भयावह होता है। भुगतभोगी दहाड़े मार कर अपनी कहनी बयान कर रहे होते हैं, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं। यही तो हासिल करते हैं हम जंग से। 

टूटे मकानों में वीरानी के सिवा कुछ खास नहीं बचता। तबाही हमेशा गर्द लाती है। बिखरी यादों को समेटने वाला कोई तो हो। चुप्पी और खेद जताती चुप्पी है। 

जंग जहां भी हो उम्रदराजों के लिये हमेशा जंग से बुरे हालात हो जाते हैं। जिंदगी और मौत का खेल हर किसी के लिये रोचक नहीं हो सकता। लड़खड़ाती टांगें और कांपती काया कभी नहीं चाहती कि जंग हो। बूढ़े अमन चाहते हैं। हर कोई शांति चाहता है। फिर क्यों होती है जंग? क्यों बहता है खून? आखिर क्या पाया हमने लड़कर? कुछ नहीं, सिवाय तबाही और अपनों को खोने के!

इस मौके पर कुछ पंक्तियां लिखी हैं :
बहाया खून इंसानों का,
तड़प रही काया है,
लड़कर किस मकसद पर,
हमने क्या पाया है।

-हरमिन्दर सिंह चाहल.

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