वक्त ठहरा हुआ, उदासी छाई है।
अकेला हूं, संग तन्हाई है।
गहरी छाया ओढ़े खड़ी चादर,
रंग बिखरे पड़े यहां-वहां,
समेट रही परछाई है।
असमंजस में था मैं, निर्जनता कुम्हलाई है।
ओस हुई रुखी, मौसम की गरमाई है।
कोहरे में खो गयी आस,
सूनापन कितना भरा हुआ,
वीरानी जो छाई है।
बूंदों को गिरा, आंसुओं में नहाई है।
कराहती, दर्द से काया चिल्लाई है।
दोष किसी का नहीं,
जीने दिया, धन्य है वह,
जिसने यह सृष्टि बनाई है।
उम्र बीत रही, बारी जो आई है।
मर्ज नहीं, दवा किसने बताई है।
बुढ़ापा है, नियम है,
झुकी है कमर, जर्जरता,
त्वचा झुर्रियों में नहाई है।
-हरमिन्दर सिंह चाहल
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