बूढ़े काका ने मुझे बुढ़ापे के बारे में बहुत कुछ समझाया है। उनकी हर बात का मतलब होता है जिसकी गहराई को समझने के लिए वक्त चाहिए। आइये उनके विचारों से अवगत होते हैं।
बूढ़े काका कहते हैं -
ऐसा मैं पहले सोचता था :
‘‘मन मानो खाली है। कुछ नहीं उचर रहा। कोई भाव नहीं। शून्य सा लगता है सब। कोना खाली, मैं खाली। जीवन में मैं हूं और नहीं भी। कैसे हुआ यह? क्यों हुआ यह? प्रश्न हजारों हैं। उत्तर तलाशने की बारी है। नहीं मिल रहा कोई उत्तर। ढूंढ रहा हूं एक कोने से दूसरे कोने। एक जगह से दूसरी जगह। तलाश अधूरी है, बेकार है। समझ से परे है सबकुछ। एकांत चाहिए, यही ख्वाहिश है मेरी ताकि कुछ पल का सुकून मुझे मिल जाये। ताकि जिंदगी के चन्द पल मैं बिना किसी उठापटक के बिता सकूं। यह सब बेवक्त हो रहा है। जानते हैं हम कि बिखरी और टूटी जिंदगी के साथ बहुत कुछ घट रहा होता है। एक पल को लगता है जैसे स्थिति सामान्य है, दूसरे पल असामान्य हो जाती है। वक्त मानो रुठ जाता है। हर कोई अलग हो जाता है। यह वीरानी का मौसम है। मजबूरी का मौसम है। और आपकी तन्हाई आपके साथ है। मन बेजार है, इंसान भी। हृदय की टूटन आखिर तक यही कह रही है कि जिंदगी में बिखराव जुड़ कर चलते रहेंगे और इसी तरह क्षोभ बढ़ता रहेगा।’’
ऐसा मैं अब सोच रहा हूं :
‘‘मैं थका नहीं हूं। हताश नहीं हूं लेकिन बुढ़ापे में मन ऐसा हो जाता है कि आप न चाहते हुए भी वक्त के हवाले स्वयं को कर देते हैं। यह जिंदगी की शायद चाह होती है। मैं नहीं मानता कि मैं उम्रदराज होने के बाद भी खुद को उम्रदराजी में ला सकूंगा। शरीर को मना रहा हूं, मानता नहीं। मन को मना रहा हूं, वह भी दगा दे जाता है। यह आलम जाने कितने समय से है।’’
‘‘क्या करुं मजबूरी है और जीना पड़ेगा उसी के साथ। एक बात कहना चाहूंगा कि जिंदगी जैसी भी हो, उसे भरोसे के साथ जियो। उत्साह को कम मत होने दो। वक्त की उठापटक चलती रहती है। आप क्यों खुद को उसका हिस्सा बनाते हैं। बुढ़ापा जियो, हां खुल के जियो।’’
बूढ़े काका की सोच को उम्र ने बहुत विकसित किया है। ऐसा वे स्वयं कहते हैं। वे कहते हैं कि जिंदगी के जितने भी पड़ाव हैं, उनमें बुढ़ापा उत्तम इसलिए है क्योंकि यहां जिंदगी का सार हमारे सामने होता है। हमारी समझ का विकास होता है। हम स्वयं को और जिंदगी को बेहतर ढंग से जान पाते हैं। फर्क उम्र को जीने के तरीके का होता है।
-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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