भारत में क्रिकेट का दीवानापन और इसमें बढ़ता पैसा, सट्टेबाजी, राजनीतिक दांव-पेंच, भाई भतीजावाद ने इस अच्छे लोकप्रिय खेल की जड़े हिला दी हैं। मेरे जैसे हजारों क्रिकेट प्रेमी अब इससे दूरी बना चुके हैं।
ऐसा लगता है यहां हर चीज फिक्स होती है। क्रिकेट टीम को चुनने में धांधली होती है। अच्छा खेल रहा खिलाड़ी अचानक बाहर हो जाता है। मैच में बचकाना शॉट लगा अच्छा खेलकर जम चुका खिलाड़ी अपना विकेट गिफ्ट कर देता है। आस्ट्रलिया जैसी टीम को रौंद कर विश्व विजय करने के बाद अचानक वही टीम पिटने लगती है।
पिछले दिनों हमने देखा इंग्लैंड में पहला टेस्ट मैच अच्छे से जीतने के बाद हमारी टीम पिटने लगी और भारी अंतर से सीरीज हार गयी। सभी लोगों ने और मीडिया ने कप्तान धोनी को नाकारा बताना शुरू कर दिया। फिर वन डे सीरीज में कमाल हो गया और हम वन डे सीरीज जीते। कप्तान धोनी की शान में कसीदे पढ़े गये।
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हमारे यहाँ किसी भी खिलाड़ी को सफलता मिलते ही उसे हीरो बना दिया जाता है। ब्रांड उसे अपनाकर मालामाल कर देते हैं और ग्लैमर की दुनिया उसके चारों ओर घूमने लगती है। वह स्वयं को विशेष मान स्वकेन्द्रित हो केवल अपने लिए खेलने लगता है। अपने रिकॉर्ड बनाना, पुराने रिकॉर्ड तोड़ना, धीमा खेलकर बेशक टीम हार जाये पर वो केवल अपना रिकॉर्ड बनाता है। फिर ऐसा खिलाड़ी अपना प्रशंसक वर्ग पैदा करता है जो उसे भगवान बनाता है और उसे सपोर्ट करता है।
हर देश में ऐसे खिलाड़ी पाये गए हैं जो पैसे के लिए देश की अस्मिता से खेल जाते हैं। अब ऐसे में हमारे जैसे क्रिकेट प्रेमी क्या करें?
कुछ न कर पाने का अवसाद लिए हम क्रिकेट से ही विमुख हो जाते हैं।
क्रिकेट इस चमक-दमक ने बाकि खेलों को बहुत क्षति पहुंचाई है। हमारा राष्ट्रीय खेल हाकी का हाल किसी से छिपा नहीं है। यही हालत अन्य खेलों की भी है।
उम्मीद है कभी तो हालात और सोच में सुधार आएगा और हम अपने लिए छोड़ देश के लिए खेलेंगे।
तब शायद हमारा भी क्रिकेट का शौक लौट आये।
-अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव
(यह लेखक के अपने विचार हैं)
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