उन बुजुर्ग को देखकर मुझे ऐसा लगा जैसे वे काफी उदास हैं। उनका चेहरा लगभग सारी कहानी बयान कर रहा था। वे सड़क किनारे एक पेड़ से कमर सटाये किसी गहन सोच में डूबे हुए थे। मैं पैदल वहां से गुजर रहा था। मेरी निगाह उनपर ही थी। करीब जाने पर मैं रुक गया।
बुजुर्ग उसी अवस्था में थे। मैं खड़ा रहा। उन्हें मालूम नहीं चला कि मैं उनके पास खड़ा हूं। उन्होंने दो-तीन शब्द बुदबुदाये। मैं थोड़ा असमंजस में था। आखिर मैंने झुककर उनके कंधे पर हाथ रखकर पूछा कि बाबा यहां कैसे बैठे हो। ऐसा लगा जैसे उनकी झपकी टूटी हो या वे नींद से जागे हों।
उन्होंने मेरी ओर अपनी बूढ़ी आंखों से देखा, फिर उसी अवस्था में बैठ गये। मुझे बहुत हैरानी हुई। मैं उनके पास बैठ गया। मैंने फिर पूछा -‘आप यहां ऐसे क्यों बैठे हो?’
बुजुर्ग की आंखें भर आयीं। वे बोले -‘घर जाकर क्या करुंगा। परिवार में बंटवारा चल रहा है। पंचायत लगी है। मेरी कोई सुनता नहीं।’
फिर क्या था, उन्होंने अपनी दर्द भरी कहानी भीगी आंखों के साथ बयान की। मैं भी भावुक हो गया।
यह दशा एक वृद्ध की नहीं है। गांवों में स्थिति चिंताजनक है। परिवार में बंटवारा होता है तो बुजुर्गों को उससे अलग रखा जाता है। जिंदगी भर वे जमीन जोतते हैं। कमाते हैं, परिवार को जोड़कर रखते हैं, रहने को आसरा बनाते हैं। जब वे बूढ़े हो जाते हैं तो उन्हें उनके अपने बेघर करने की कोशिश में लग जाते हैं। दो रोटी के लिए वे मारे-मारे फिरते हैं। यह बेहद दयनीय स्थिति है।
मैंने देखा है कि वृद्ध कमजोर काया के साथ भी मौसम का लिहाज किये बिना अपने खेतों में मजदूरों की तरह काम करते हैं। फिर जल्द चारपाई पकड़ लेते हैं और जिंदगी को अलविदा कह जाते हैं। यह एक उदास कहानी की तरह होता है जो आखिरी पलों में कराहट और दर्द के साथ समाप्त होती है।
-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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