सदाशिव अमरापुरकर को सबसे पहले मैंने ‘सड़क’ फिल्म में देखा था। उस फिल्म में संजय दत्त हीरो थे। उनके साथ पूजा भट्ट भी थीं। वह फिल्म मैंने गांव में देखी थी। उन दिनों गांव में वीसीआर का क्रेज हुआ करता था। कैसिट का जमाना था। लगभग आठ बजे फिल्म शुरु हुई। हम सब बड़े उत्साहित थे क्योंकि फिल्में आज की तरह तो टेलीविजन पर चलती नहीं थीं। दूरदर्शन पर रविवार को एक फिल्म आती थी जिसे देखने के लिए ही लोगों की भीड़ लग जाती।
‘सड़क’ में सदाशिव अमरापुरकर का महारानी वाला रोल उस समय मुझे बहुत खतरनाक लगा। तब मैं छोटा बच्चा था। वह इतना क्रूर था कि मुझे उस किरदार से एक तरह से नफरत भी हो गयी थी। दरअसल मैं फिल्म देखता-देखता उसमें खो जाता था। ऐसा महसूस करने लगता था कि सब असलियत में हो रहा है। उसके बाद भी ‘सड़क’ फिल्म को मैंने कई बार किश्तों में देखा, लेकिन वह रोल यादगार रहा। अमरापुरकर का पहनावा और बोलने का अंदाज हमेशा ही शानदार रहा है।
वे एक दमदार विलेन के साथ-साथ मजेदार कामेडियन भी रहे। उनकी कई फिल्में आपको हंसने पर मजबूर करती हैं। ‘इश्क’ की बात की जाये तो उसमें आपको एक खड़ूस बाप नजर आता है, लेकिन वह फिल्म मजाकिया लहजे में बनी थी।
अमरापुरकर की उम्र 64 साल थी। वे कई दिनों से बीमार चल रहे थे। उन्हें फेफड़े का संक्रमण हुआ था। सोमवार सुबह दो बजे के आसपास उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
उन्होंने ढाई सौ से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया। 1984 में बनी ‘अर्ध सत्य’ के लिए उन्हें फिल्म फेयर का सम्मान भी मिला था। जबकि ‘सड़क’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ खलनायक का पुरस्कार मिला। यह फिल्म 1991 में आयी थी। मुख्यतः अमरापुरकर को हम ‘सड़क’ के लिए अधिक जानते हैं।
2013 में आई ‘बाम्बे टॉकीज़’ उनकी अंतिम फिल्म थी।
वृद्धग्राम की ओर से सदाशिव अमरापुरकर को श्रद्धांजलि।
-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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