मुझे किसी ने बताया कि गीत-संगीत से आप उदास मन को खुश कर सकते हैं। यह मैंने बहुत बार सुना है, लेकिन इसकी आजमाइश या सीधा प्रसारण कभी देखा नहीं। यों कह लिजिये कि मैं उस समय मौजूद नहीं रहता या मुझे किसी जरूरी काम से कहीं जाना पड़ जाता है।
गाना-बजाना मुझे उतना पसंद नहीं, लेकिन कुछ फिल्मों के संगीत को मैंने पसंद किया है। "कल हो न हो", "वीर ज़ारा" के बैकग्राउंड संगीत और कैमरे द्वारा दिखाये भव्य नज़ारों को मैं बार-बार देखना चाहूंगा। मैं शाहरूख, अमिताभ, प्रीति बगैरह को देखना नहीं चाहता, मैं केवल फिल्म को संगीत सुनना चाहता हूं जो मुझे सुकून पहंचाता है। मुझे पुराने गीत पसंद हैं।
लीजिये जो बात पहले कह चुका उसका सीधा प्रसारण भी मैं महसूस कर चुका। मेरी याद्दाश्त को हो क्या गया? क्या लंबी बीमारी के बाद आप तीस के बिना पार हुये चीजों को भूलने लगते हैं?
हमारे एक रिश्तेदार मुकेश के गीतों के इतने बड़े फैन थे कि उनके पास मुकेश के लगभग सभी गीतों की ओडियो कैसेट्स थीं। मैं अक्सर उन्हें गीतों पर झूमते पाता। क्या बात थी! वे गीतों को सुनकर किसी अलग दुनिया में चले जाते।
"आवारा हूं...", "इक दिन बिक जायेगा माटी के मोल..", "सुहाना सफर और ये मौसम ..", जैसे सुरीले नगमें मेरे भी पसंदीदा बन गये। क्या कहने इन गीतों के! क्या सरगम है, क्या संगीत है!
आजकल का संगीत मेरे ख्याल में वह बात नहीं रखता। वो बात ही और थी, वे नगमें ही और थे, वे लोग ही और थे!
मैंने कुछ पंक्तियां रच डालीं -
गीत गाता चल,
यूं ही गुनगुनाता चल,
यूं ही गुनगुनाता चल,
संग जो है तेरे पल,
उन्हें सुकूं से बिताता चल,
उन्हें सुकूं से बिताता चल,
गीत गाता चल...
यूं ही गुनगुनाता चल....।
यूं ही गुनगुनाता चल....।