कुछ दिन पहले मैंने एक उपन्यास खत्म किया। नियम से पढ़ने के कारण उसे सप्ताह भर से अधिक समय नहीं लगा। कुल पन्ने 630 थे। कहानी की रोचकता के कारण मैं बिल्कुल बोर नहीं हुआ, जबकि पहले हो जाता था। तब मैं चार या पांच पन्ने पढ़ने के बाद ऊब जाता था।
मोटी किताबों को देखकर ज्यादातर लोग घबरा जाते हैं। वे पहले ही अनुमान लगा लेते हैं कि उसे पढ़ने में बहुत समय लग जायेगा। किताब पढ़ना शुरू तो कीजिये, पढ़ी भी जायेगी- मैं इसी विचार के साथ किताबें पढ़ रहा हूं। ढर्रा बदलने में क्या जाता है।
बच्चों की कहानियों के लिये हिन्दी उपन्यासकार ढूंढ़े नहीं मिलते। कामिक्स का जमाना शायद चला गया। गंभीर या रोचक उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं। हिन्दी में अनुवाद होने के बाद कई बड़े अंग्रेजी लेखकों की पहुंच दूसरी भाषाओं के पाठकों तक हुई है। मैंने भी पिछले दिनों कुछ अनुवाद पढ़े, लेकिन कई जगह खामियों से भरा पाया उन्हें। ऐसा लगता था जैसे जल्दबाजी में किया गया कार्य था या प्रूफ-रीडिंग की समस्या थी। एक प्रकाशक को मैं जल्द इ-मेल करने जा रहा हूं जिनका उपन्यास मैंने पहले पढ़ा था। पढ़ते-पढ़ते कई जगह शब्द गलत लिखे हुए थे। उससे पूरा वाक्य बिना मतलब का बन पड़ा था।
किताबों को शैल्फ में सजाने के बाद मैं उनकी गिनती कर रहा था। बाद में पता चला कि मैंने दस उपन्यास पढ़े हैं जिनमें अधिकतर पूरे नहीं हो सके। मामला 80 या 90 प्रतिशत पर अटक गया। कुछ का प्रारंभ या अंत पढ़ लिया और हो गयी पढ़ाई।
किसी दिन तसल्ली से लिस्ट बनाने की सोच रहा हूं। जितना जिस किताब को पढ़ा दर्ज करता जाऊंगा। चलिये शुरूआत करते हैं।
-हरमिन्दर सिंह चाहल.