बुढ़ापे की कहानी हैरान कर देती है। यहां दशा ऐसी हो जाती है चीजें लगभग अपने हाथ में नहीं रहतीं।
छड़ी का सहारा लिए जब उस वृद्ध व्यक्ति को मैंने देखा तो मेरे भीतर कुछ उथलपुथल हुई। मैं लंबी सोच में पड़ गया। सोचने लगा कि बुढ़ापा आखिर इतना निर्दयी क्यों है?
बचपन में हम कितने मासूम होते हैं। तब हम अपने बूते कुछ नहीं कर पाते। दूसरों के सहारे की जरुरत है। बुढ़ापा आता है। हम असाहय हो जाते हैं। तब भी सहारा दूसरों का चाहिए।
यह स्थिति अजीब है। मेरे मुताबिक ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन यह बात भी गलत नहीं कि प्रकृति का नियम है।
दर्द, खुशी, इच्छा, भय, आदि की शुरुआत जन्म से होती है। पैदाइश के साथ एक तरह से इंसान की उलटी गिनती का प्रारंभ हो जाता है। एक के बाद दो, दो के बाद तीन और इसी तरह साल गुजरते जाते हैं। एक कदम के बाद दूसरा कदम बढ़ता है।
तमाम जिंदगी के रंग देखकर व्यक्ति बुढ़ापे को ग्रहण करता है।
उम्र का हिसाब है बुढ़ापा
यह भी गलत नहीं कि जिंदगी में चाहें जिसने जैसा कमाया उसे उम्र का हिसाब तय समय पर करना पड़ता है। खुशियां कितनी बांटी हों, मगर हर खुशी का हिसाब दर्द और कराहट से भी होने की संभावना है। तो हिसाब-किताब के लिए आता है बुढ़ापा।
कुछ कहते हैं कि जन्म के कर्मों के मुताबिक फल देता है बुढ़ापा। अच्छे कर्म तो अच्छा कटेगा बुढ़ापा, बुरे कर्म पर दर्द से भरा होगा आखिरी पड़ाव।
मैं तो अकसर देखता हूं कि आशावादी अच्छे से बिताते हैं अपनी उम्र के आखिरी दिन। निराशावादी लोग पहले ही संसार से विदा ले लेते हैं।
शायद कीमत वसूलने के लिए भी आता है बुढ़ापा।
अपने-अपने विचार हैं। बुढ़ापे को देखते हैं तो लगता है कितना निर्दयी है उम्र का यह पड़ाव। हारा हुआ, अपमानित सा इंसान।
बहुत बूढ़ों ने खुद को उम्र से समझौता करना सिखाया भी है। वे जिये हैं उम्मीद से। उन्होंने खुद को समझा है। उम्र को संजोना सीखा है। दर्द को भी सहना सीखा है। वे बदले हैं वक्त के साथ।
कुछ पंक्तियां लिखीं हैं :
जिंदगी की ख्वाहिश है कि बूढ़ा न हो कोई,
लेकिन दर्द का रिश्ता भी तो कोई चीज होती है।
-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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