अकेला ही
अकेला चला हूं, अकेले चलूंगा।
यूं ही ज़िंदगी के सफर में मिलूंगा।।
कहां हो सकती है, खुदी की खबर ही
बढ़ा पग दिया है, नयी है डगर भी।
नये पथ की पगडंडियों पर मिलूंगा
नये भोर की मैं किरण पा सकूंगा।।
दिवा हो निशा हो, कि सूरज ढला हो
कभी प्यार पाने को, या दिल जला हो।
जिसे जानता हूं उसे मान दूंगा
मगर मैं स्वयं में अनजां रहूंगा।।
मुझे तौबा हो जो, उन्हें ठेस दे दूं
चला वश अगर तो, रही सांसें दे दूं।
भले मिट भी जाऊं उन्हें बढ़ने दूंगा
घिरते भंवर में मैं बहने न दूंगा।।
मैं बुझते घरों के, वे दीपक जला दूं
टूटे दिलों पर मैं, मरहम लगा दूं।
मैं शूलों को सुमनों पे, चुभने न दूंगा
बड़े प्यार से मैं, उन्हें चूम लूंगा।।
चला हूं चला हूं, मैं चलते चलूंगा
ऊंचे शिखर पर ही जाकर रुकूंगा।
अकेला बढ़ा हूं, अकेला बढ़ूंगा
तभी मंजिलों को कभी पा सकूंगा।।
अकेला तपा हूं, अकेले तपूंगा
अकेला जला हूं, अकेले जलूंगा।
अकेला चला हूं, अकेले चलूंगा।
यूं ही ज़िंदगी के सफर में मिलूंगा।।
-सुशील चन्द्र बूड़ाकोटी ‘शैलांचली’
जरुर पढ़ें - अभी अलविदा मत कहो दोस्तो
Facebook Page Follow on Twitter Follow on Google+