जिंदगी की परछाईं
किनारे पर खड़ा होकर जिंदगी की परछाईयों को निहार रहा हूं. बुढ़ापे में तो परछाईयां भी काटने को दौड़ती हैं -ऐसा सभी कहते सुने हैं. मैं भी थोड़ा हंस देता हूं, थोड़ा मुस्कान बिखेर देता हूं.
झुर्रियों वाले चेहरे में सिलवटों में जगह है; रोशनी वहां सिमटी हुई है. उधेड़बुन तो बनी रहती है, लेकिन परछाई आती-जाती रहती है. झुर्रियां मासूम नहीं होतीं.
मौसम के साथ खुद को बदलने में बुढ़ापा कितना कामयाब हो पाया है, यह मुझे अच्छी तरह मालूम नहीं. देखता हूं कि वक्त किस तरह अदला-बदलती करता है.
कल की बात है जब मैं लड़खड़ा गया. मुझे सोचने पर विवश होना पड़ा. टांगे भी कमजोरी मान रही हैं. पूरा शरीर कहीं खो रहा है. बस नहीं मेरा शरीर पर. मशीन के पुर्जे थक गये लगते हैं. जानता हूं मैं कि बिखरेंगे नहीं, हां टूट-फूट वक्त के साथ जरुर होती रहेगी.
मेरा मानना है कि उम्रदराजी शांत है. उसमें उतनी हलचल नहीं.
बुढ़ापा मुलायम भी है. यहां रेशों को बुना नहीं जाता, न ही वे उधड़े चलते. इतना जरुर है कि यहां वस्त्र पुराने होने पर नये नहीं आते. जर्जरता को ओढ़कर इंसान खुद में सिमटने को मजबूर हो जाता है.
बुढ़ापा मुझे कचोट नहीं रहा. हताशा घर नहीं कर सकती, लेकिन महसूस कर रहा हूं कि दरवाजे पर कोई है.
ओह! कुंदी लगाना मैं भूल गया.
-हरमिन्दर सिंह चाहल.