सुबह का मौसम सर्द भरा बिल्कुल नहीं था, जबकि नवंबर के महीने में मौसम बदलने लगता है। मेरी तैयारी कोई खास नहीं थी। मैं गजरौला के इंदिरा चौक तक पहुंचा। वहां से फाटक की तरफ पैदल चल पड़ा।
ओवरब्रिज का काम पूरा साल के आखिरी तक होने की बात कही जा रही है। उसी कारण चौपला तक जाने वाला रास्ता बीच में रोक दिया गया है। जगह-जगह बैरीकेट लगाये हुए हैं।
एक किलोमीटर का यह सीधा रास्ता काफी उतार-चढ़ाव भरा बन गया है। सड़क का कुछ मीटर तक नामोनिशान है। फिर पुल का निर्माण हो रहा है। खुदाई जारी है। विशालकाय बोल्डर बड़ी-बड़ी मशीनों की सहायता से लगाये जा रहे हैं। मजदूरों की व्यस्तता देखते ही बनती है। वहां दूसरे कर्मी भी बहुत ही व्यस्त लगते हैं।
रास्ते में जो फूल-मालाओं के दो खोखे हैं, उनपर इसका असर नहीं हुआ है। वे अपना काम-धाम कुछ दूरी पर खिसका कर जरुर बैठे रहते हैं ताकि आनेजाने वालों को कोई दिक्कत न हो।
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अक्सर मैं उनके करीब से गुजरता हूं। ग्राहकों की वहां भीड़ तो नहीं रहती, मगर दिनभर में फूल बेचकर उनकी कमाई अच्छी हो जाती है। वे रास्ते में पानी का छिड़काव करते हैं। ऐसा करने से रास्ते की धूल दब जाती है।
पुल का जितना हिस्सा बना है उसके नीचे और आसपास ऑटो खड़े रहते हैं। वे सवारियों के लिए आवाजें लगाते नहीं थकते। जब सवार दो या चार हों तो चौराहे तक का किराया पांच रुपये लेते हैं, वरना दोगुना करने में कोई परहेज नहीं। आमतौर पर मैं ऑटो में नहीं बैठता। कभी-कभार उनकी सेवायें ले लेता हूं।
मैंने अपने फोन में समय देखा तो नौ से अधिक बज चुके थे। मेरी चाल तेज हो गयी। कुछ ही मिनटों में मैंने खुद को चौपला पर पाया। यहां से हाइवे गुजरता है जो गजरौला को दिल्ली, मुरादाबाद, संभल, बिजनौर, बरेली आदि से जोड़ता है।
इंतजार के कुछ पल ही बीते होंगे कि प्राइवेट बस आ गयी। मैं कई बार इस बस से सफर कर चुका हूं। किराया सरकारी से कम है। स्पीड की बात की जाये तो उससे तेज है। अभी तक यह भी साबित हुआ है कि बस का चालक सुरक्षित तरीके से गाड़ी चलाना जानता है। इस लिहाज से प्राइवेट बस में बैठना घाटे और खतरे का सौदा बिल्कुल नहीं। मगर डर बना रहता है, क्योंकि चालक बदल भी जाते हैं। आयेदिन अखबारों में प्राइवेट बसों की घटनायें पढ़ने को मिलती हैं जब वे दुघर्टनाग्रस्त हो जाती हैं।
वह दिन भैयादूज का था। मुझे सीट मुश्किल से मिली। मेरे पास दो महिलायें बैठीं जिनमें एक की गोद में करीब तीन साल का बच्चा होगा जिसके कपड़े उसने बस में बैठते ही बदलने शुरु कर दिये। दूसरी महिला के हाथों में मेंहदी सजी थी। उसने घूंघट से अपना चेहरा आधे से अधिक ढक रखा था। उसका पति कुछ दूरी पर खड़ा था। दो भारी दिखने वाले बैग वे अपने साथ लाये थे जिन्हें उन्होंने पीछे की सीट पर टिका दिया था। महिला का पति उन्हें पकड़े हुए इस तरह झुका था जैसे वे अब गिरे, तब गिरे। वास्तव में ऐसा नहीं होने वाला था क्योंकि बैग बस के झटकों के कारण स्वतः ही व्यवस्थित हो गये थे।
बस की पिछली सीट सबसे लंबी थी। वहां कम से कम आठ लोग बैठ सकते थे। उसपर लोगों ने अपना सामान रखकर जगह कम कर दी थी। यही वजह थी कि बस में पैर रखने को भी जगह नहीं थी। जिसे जहां जगह मिली वहां सामान रख दिया। बोरियां तो बस के फर्श पर लिटा दीं जिनपर खड़ा होना मुसीबत था। पांच फुट के लोगों का सिर तो बार-बार बस की छत से टकराता। वे जितना सचेत हो सकते थे हुए, लेकिन ऊबड़खाबड़ सड़क का हल तो किसी के पास नहीं था।
गांव का एक बुजुर्ग बीड़ी का दूसरा कश ही ले पाया होगा कि झटके के कारण उसकी बीड़ी छिटक कर उसकी खुद की धोती पर गिर गयी। गनीमत रही कि उसने फुर्ती का परिचय दिया वरना कुछ भी हो सकता था।
बीड़ी पीने पर एक व्यक्ति से उस बूढ़े की नोकझोंक भी हुई। मुझे हैरानी इस बात पर हुई कि बूढ़ा बीड़ी के आखिरी कश तक अड़ा रहा। वो अलग बात थी कि बस में शीशे कम थे और हवा के झोंके धुंए को टिकने नहीं दे रहे थे, वरना हर किसी को उस वृद्ध से उलझना पड़ता या बिना बहस करे अपने-अपने नाक रुमाल से ढकने पड़ते।
गाड़ी ने कई पुलों को पार किया। बीच-बीच में लोग सवार होते गये, उतरते गये। एक समय ऐसा भी आया जब बस में गिने जाने के लायक लोग थे। चालक, उसके दो सहयोगी, मैं और तीन अन्य यात्री।
टोल बैरियर पर जब बस रुकी तो मैंने अपने फोन से कुछ तस्वीरें खींचने की सोची, यकायक मेरा फोन घनघनाया। एक मित्र ने याद किया था। लगभग तीन या चार मिनट तक हमारी बातचीत होती रही। आवाज उतनी स्पष्ट नहीं थी, मगर हम बात करते रहे।
अगले स्टाॅप पर फिर सवारियों ने दस्तक दी। जैसे बाढ़ का पानी घर में घुसता है, ठीक उसी तरह का वह दृश्य था। मैं कोने से चिपका दिया गया। तीज-त्योहार में बसों का यही हाल है।
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-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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