क्यों हम जीवन खो देते हैं?

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'पल भर में क्या से क्या हो जाता है। जिंदगी की कुंठायें हमें जीने कोई देती हैं। उजड़ा सा लगता है सब कुछ। मानो संसार में कुछ शेष न रह गया हो। लुट ही तो जाता है सब। सूनेपन में मिठास भला कहां से आ सकती है।' काकी ने मुझसे कहा।

'खुद जीवन को समाप्त करना आसान भी तो नहीं।' मैंने काकी से कहा।

इसपर बूढ़ी काकी गंभीर हो गयी और बोली -'द्वंद है खुद का खुद से। स्वयं से लड़ना मुश्किल है। एक नहीं बहुत पराजित हुए हैं। जीवन से निराश होकर समर्पण कर देना पराजय की निशानी है, लेकिन इसके लिए इंसान की शक्ति चाहिए। भीतरी टूटन जब जुड़ नहीं सकती, वीरानी की चहलकदमी तेज हो जाए, तो जीवन का हारना तय है। .......लेकिन फिर वही बात आंतरिक तौर पर जहां कुछ बिखर रहा होता है तो वहीं दूसरा किनारा जो अंदरूनी होता है, मजबूत होता रहता है। यह अनोखेपन लिए है क्योंकि इसे समझना मुश्किल मालूम पड़ता है।'

'काकी हम निराश क्यों होते हैं?' मैंने काकी से पूछा।

'शायद मन थक जाता है या फिर नीरसता का एहसास होने लगता है। कुछ असमर्थततांए हमें निराश करती हैं। इस कारण मन अपनी तसल्ली खो बैठता है। कुछ अच्छा नहीं रह जाता। संसार खाली-सा लगने लगता है।'

‘ऐसा भी लगता है जैसे हमारा एक हिस्सा गायब हो गया हो। वह हमसे कहीं टूटकर बिखर गया हो, लेकिन असल में ऐसा होता नहीं, बल्कि हमारा मन हमें ऐसा सोचने पर मजबूर करता है। मन की गहराई को समझना आसान नहीं होता। वह कहीं हिरनी की तरह दौड़ता, कहीं वह सुस्त कछुवा बन जाता है। वह जो चाहता है, हमसे करवाता है। अब प्रश्न उठता है, मन को कैसे मनाया जाये? मन परिस्थितियों के मुताबिक ढलकर चलता है। वह जैसा सोचता है, वैसा करता है। जीवन की चाल को हम अच्छी तरह समझते तो हैं, मगर जब जीवन में नीरसता के बादल उमड़-घुमड़ करने लगते हैं तो सूरज का उगना और छिपना भी अजीब लगता है। हृदय प्रसन्नता खोता जाता है। यही निराशा का भंवर है।’

'तुम जानते हो कि निराशा का भंवर उथला बिल्कुल नहीं होता। यहां डूबने की पूरी गुंजाइश रह जाती है। जब खालीपन ठहर जाता है, तब निराशा का स्वतः ही जन्म हो जाता है।' \

‘हम खुद को मरा हुआ भी पाते हैं। यह अवसाद की स्थिति है। नीरसता जब हद से आगे गुजर जाती है, तो प्रायः अवसाद का रुप ले लेती है। अवसाद गहरी नीरसता की स्थिति है। उससे पूर्व में गंभीरता छाती है। बाद में वह धीरे-धीरे नीरसता को जन्म देती है। हम देखते हैं कि उम्र के साथ गंभीरता आती जाती है। बुढ़ापा ऐसी स्थिति है जब जीवन सबसे अधिक गंभीरता लिए हुए होता है। वह इतना गंभीर होता है कि वह बारीकी से जीवन का अध्ययन कर रहा होता है। हर मामूली चीज उस समय मायने रखती है। हर रेशा जो कितना भी महीन क्यों न हो, बुढ़ापा उसकी चाल को समझ लेता है। पर वह खुद को ऐसा करते हुए असहाय भी महसूस करता है। वह जीवन की ऐसी स्थिति है, जब इंसान खालीपन में होते हुए भी भरा हुआ होता है। विचारों से भरी नावें अकसर डूब जाती हैं या उनका सफर हिचकोलों और घबराहटों में बीतता है।’

‘कुछ लोग जोश में होश खो बैठते हैं, लेकिन वह बुढ़ापे की स्थिति नहीं है। ऐसा प्रायः जवानी में होता है। जीवन की महत्ता को वे ठीक से समझ नहीं पाते या उनके सामने ऐसा जीवन प्रस्तुत किया जाता है जिसमें वे हर तरफ, हर मोड़ पर खुद को निराशा से घिरा पाते हैं। अंत में वे टूट जाते हैं और जीवन की डोर उनके हाथ से छूट जाती है।’

‘पंछी जो कभी चहकता था, अनगिनत बार खिलखिलाता था, एक झटके में इंसानी रिश्तों, मोह से दूर चला जाता है। ऐसी जगह जहां से लौटना नामुमकिन है। वही तो खुद को छोड़ना और जीवन को छोड़ना कहलाता है। कीमती चीज हमसे जुदा हो जाती है। जीवन की कीमत भुला दी जाती है। पल भर में जिंदगी उजड़ जाती है, खो जाती है।’

काकी ने कहा।

'तो जिंदगी अनमोल होते हुए भी लोग उसे खो देते हैं।' मैं बोला।

इसपर काकी ने स्पष्ट करने की कोशिश की। उसने कहा, -'पता नहीं लोग ऐसा क्यों कर जाते हैं? लोग जीवन का मतलब जानते हैं। जाने-अनजाने में जीवन को खो भी देते हैं। एक तरह की दुविधा का आवरण लिपट जाता है। पता ही नहीं चलता कि क्या हो गया।'

'एक मामूली फंदा या कुछ भी इतनी कीमती जिंदगी का फैंसला एक झटके में कर देता है। इंसान रह जाता है, जीवन नहीं और रह जाते हैं कुछ सवाल।'

'जीने की आस मिट जाती है। तब जीवन से छुटकारा चाहता है इंसान। शायद यही हल मस्तिष्क में आता है तब।'

'कितना खुश था जीवन। अचानक कुछ ऐसा हुआ, निराश हो गया। नीरसता बढती गयी। ......और एक दिन पता लगा कि वह खो गया।'

काकी काफी भावुक थी।

मैंने बूढ़ी काकी की आंखों में झांकने की कोशिश की। आंखों गीली थीं। वहां भावनाओं का स्वागत किया जा रहा था। आड़ी-तिरछी होती माथे की सलवटों पर गौर किया तो पाया कि बुढ़ापा विचार करता है तबतक जबतक वह तह नहीं पहुंचता। काकी सोच रही थी कि जिंदगी ऐसी क्यों है? उसके मन में जो विचारों का समुद्र हिलौंरे ले रहा था, वह उसे जीवन के उन पहलुओं से दो-चार करा रहा था जिनसे जीवन की धुरी घूमती है और जो समझना मुश्किल है क्योंकि यहां लहरें एक सिरे से दूसरे सिरे नहीं बहतीं, बल्कि यहां तो लहरें इस तरह बहती हैं कि उनके छोर ढूंढने की कल्पना करना बेमानी होगा।

दूर देखती काकी की आंखें उस विशालता को समझने की कोशिश में शायद जुटी थीं जो अनगिनत सवालों से सनी हुई है। वह जानना चाहती होगी कि उम्र की बनावट इस तरह क्यों है कि वह महसूस करती है? क्यों ऐसा लगता है कि सबकुछ हमारे पास है, और क्यों एक पल में सबकुछ मिटता हुआ, उजड़ता हुआ, थमता हुआ महसूस होता है?

लेकिन एक बात कहता हूं कि बूढ़ी काकी ने अपनी जिंदगी को बारीकी से पढ़ा है और वह बुढ़ापे को लंबे समय से ढो रही है। वह उम्रदराजी की हमारी परिभाषा को विकसित कर रही है। (1027 शब्द).

-हरमिंदर सिंह.