दीपावली और होली दो ऐसे पर्व हैं जो भारतीय संस्कृति के रोम-रोम में रच बस गये हैं और अनंतकाल से परंपरागत और उत्साह के साथ मनाये जाते हैं। होली के बारे में भी देश में कई मान्यतायें और रुढ़ियां प्रचलित हैं जिनके सहारे हमारी सांस्कृतिक पहचान और अस्तित्व बरकरार है बल्कि वह हर बार एक नव स्फूर्ति और हर्षोल्लास के साथ पुष्पित और पल्लवित होता रहा है। सामाजिक और आर्थिक बदलावों का प्रभाव हमारे त्योहारों तथा उनके मनाने के तौर-तरीकों में भी दृष्टिगोचर होता है।
हम कुछ दशक पीछे मुड़कर देखते हैं तो होली के मौके पर हफ्तों पूर्व यानि बसंत पंचमी से ही ग्रामांचलों में एक नव यौवन के संचार और मदमस्त वातावरण की साक्षात अनुभूति होती थी। किशोर और नवयुवकों को छोड़िये आयु के अंतिम पड़ाव की ओर बढ़ते कदमों में भी अजीबोगरीब उल्लास का संचार हो उठता था। बसंती बयार और फिजा में तैरती आम्र मंजरी और कचनार के फूलों की मदहोश करने वाली गंध का आनंद होली के मौके पर अनायास ही अठखेलियां करने लगता था। गांव की रातों में बम(बड़ा ढोल) बजने के स्वर रात्री के शांत और स्निग्ध वातावरण में बेहद कर्णप्रिय लगते थे। उस वातावरण में आने वाली होली एक रोमांचक रोमांस का सृजन करती थी।
गांवों के खाली मार्गों में मध्य रात्री तक बम, ढोल, मंजीरे और घड़ियाल की धुनों पर मस्त होकर गाने वालों की टोलियों की मस्ती का कोई पारावार नहीं होता था। घंटों तक डंकों की चोट करने वालों को थकान का नाम नहीं होता था। मध्यरात्री के बाद भी छतों पर लेटे दूर से सन्नाटा चीरतीं धुनें बेहद सुरीली और कर्णप्रिय लगती थीं।
होली के रंगों में लिपटी ज़िन्दगी हमसे कितनी बातें कर रही है क्योंकि हमें अतीत की होली के रंगीन आंचल की तलाश जो है। पता नहीं वह मौसम, वह मस्ती, वह उल्लास, वह उमंग और बूढ़ों में भी उपजने वाली तरंग आज के मशीनी युग में कहां गुम हो गयी। क्या कोई लौटा सकता है हमारी वह होली?
-हरमिंदर सिंह.
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